Drainage crisis led public health disaster as result of this project is a threat to the life, livelihood and ecosystem of Ganga basin

Wednesday 17 September 2008

कोसी को बांधा नहीं जा सकता

पिछले कई सालों से न सिर्फ केन्द्र सरकार ने बल्कि बिहार सरकार ने भी बाढ़ कार्यवाही योजना का गलत निर्धारण किया है। सन 1954 से जब नेपाल इस मामले में एक पक्ष बना है तबसे लगातार पूरी जिम्मेदारी नेपाल पर थोपना काफी आसान हो गया है। तथ्यान्वेषण दल को यह देखकर अचम्भा हुआ कि न तो केन्द्र सरकार और न ही बिहार सरकार ने यह आकलन करने के लिए कोई सर्वेक्षण किया है कि बाढ़ नियंत्रण उपायों का समाज के समाजिक आर्थिक परिस्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा है। यही स्थिति नेपाल में भी है।

तथ्यान्वेषण दल का यह मानना है कि मौजूदा समस्या का मूल कारण तटबंध ही नहीं है। दल इस स्थिति के हल के लिए निश्चित नीति निर्णय चाहता है। हालांकि जिसे गैरकानूनी माना जाता है, लेकिन पानी में फंसे लोग अपने आस-पास जमा पानी को निकालने के लिए तटबंध को तोड़ने का सहारा लेते रहते हैं। इसके पक्ष में सामान्य सोच यह है कि तटबंधों को तोड़ने से कोई अनचाही परिस्थिति नहीं पैदा होती है।

भारत में तटबंधों को तोड़ने के प्रमाण भी हैं। दामोदर नदी में 1854 में बने 32 किमी लम्बे तटबंध को 1869 में ढहा दिया गया। ब्रिटिश सरकार को बहुत जल्दी यह महसूस हो गया कि इससे बाढ़ नियंत्रण नहीं होता, तटबंधों से उपजाऊ जमीने डूब में जा रही थीं, जिसके लिए उन्हें मुआवजा देने को बाध्य होना पड़ता था। ''तटबंध टुटने के कारण मुआवजा देने की सबसे पहली घटना 1896 की है जब पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में किसानों को 60,000 रुपये मुआवजा दिया गया।''

हॉलैंड में राइन और मियूस नदी को बांधने में असफल रहने पर वहां के जलविज्ञानियों ने सुरक्षा का एक खास तरीका अपनाया है जिसे 'नदी के उन्मुक्त प्रवाह की जगह' कहा जाता है। इस नई आवधारणा न सिर्फ जानकारी युक्त चर्चा की जरूरत है बल्कि यह व्यापक राजनैतिक समर्थन पर आधारित है। ऐसे उपायों पर उत्तर बिहार के निवासियों से चर्चा करके निष्कर्ष पर पहुंचने की जरूरत है, लेकिन इसके लिए केन्द्र सरकार और बिहार सरकार के बीच आपसी सहमति की जरूरत है।

जब तक दोषी अधिकारियों एवं संस्थाओं को जवाबदेह नहीं बनाया जाएगा तब तक न सिर्फ वे पिछली गलतियां दोहराई जाएंगी बल्कि नई अवधारणाओं और रणनीतियों को लागू करना भी मुश्किल होगा। यह बात जल संसाधन से जुड़ी संस्थाओं के मूल, क्रियाकलाप, और कानूनों से साफ होती है। वे सभी बड़ी परियोजनाओं के नियोजन, डिजाइन और क्रियान्वयन के लिए ही बनी हैं। यह बात भी साफ है कि वे भागीदारी युक्त या पारदर्शी संस्थाओं के प्रति इच्छुक भी नहीं हैं। ये संस्थाएं पूरी नदी घाटी की आवश्यकताओं, संसाधनों और प्राथमिकताओं को शामिल करने में असफल रही हैं। इस तरह ''मौजूदा संस्थाओं को पूरी तरह नये सिरे से खंगालने (परिभाषित) की जरूरत है''.

ऐसे मामलों में किसी न्यायिक या प्रशासनिक जांच से आपराधिक जिम्मेदारी नहीं तय होती है, क्योंकि ऐसे आयोगों और समितियों के निष्कर्ष तो निश्चित ही होते हैं। यह तो किसी परिणाम पर न पहुंचने की नियमित प्रक्रिया है। हालांकि, न्यायमूर्ति राजेश बालिया आयोग के विचारार्थ विषय में कोसी उच्च स्तरीय समिति के बारे में स्पष्ट किया गया है, लेकिन उसकी विशेषताओं पर ध्यान देने की जरूरत है। लेकिन ऐसे आयोगों की सबसे बड़ी सीमा यह होती है कि ये समस्या के लिए जिम्मेदार मौजूदा संस्थाओं से न तो सवाल करती हैं और न तो कर सकती हैं। आयोगों द्वारा तैयार ऐसी सैकड़ों रिपोर्टों में धूल पड़ रही हैं और उन्हें दीमक चाट रहे हैं। इनमें से ज्यादातर का उपयोग चुनावों में प्रचार के लिए होता है। इस तरह, सबकी परिणति एक जैसी होती है।

आइए इस आपदा पर भारतीय प्रधानमंत्री, बिहार के प्रधानमंत्री और बिहार के मुख्यमंत्री के बयान पर एक नजर डालते हैं। कोसी क्षेत्र के कुशहा में तटबंध में कटाव आने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री ने 19 अगस्त 2008 को भारत के विदेश मंत्री से निवेदन किया कि वे कोसी समझौते के अनुसार नेपाल में कटाव के मरम्मत के लिए नेपाल सरकार को कानून व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए सम्पर्क करें।

नेपाल के सुंसारी जिले के लौकाही पुलिस थाना में 16 अगस्त 2008 उन असामाजिक तत्वों के खिलाफ एक प्राथमिकी दर्ज कराई गई है जिनके द्वारा ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की गई कि सभी इंजिनियरों को वहां से भाग जाना पड़ा।

20 अगस्त 2008 को नेपाल के प्रधानमंत्री ने स्थिति का जायजा लेते हुए कहा कि, ''कोसी समझौता एक भयंकर ऐतिहासिक भूल थी'' और ''इसे लोग पीड़ित हैं''। समझौते की वजह से तटबंधों का निर्माण हुआ है और बड़े बाध का प्रस्ताव है। भारत के प्रधानमंत्री ने 28 अगस्त 2008 को बाढ़ग्रस्त इलाकों का हवाई सर्वेक्षण करने के बाद इस समस्या को ''राष्ट्रीय आपदा'' घोषित किया और राहत और पुनर्वास के लिए तत्काल 1000 करोड़ रुपये जारी करने की भी घोषणा की।

यह ध्यान देने योग्य है कि भारत सरकार ने 2004 में घोषित अपने राष्ट्रीय न्यूनतम सहमति कार्यक्रम के तहत उत्तरी बिहार के बाढ़ नियंत्रण, ड्रेनेज आदि योजनाओं को पूरा करने का संकल्प लिया था (जिसके लिए नेपाल सरकार की सहमति भी जरूरी है)। उस वादे को किए हुए चार साल हो गए लेकिन अब फिर अगस्त 2008 में उन्होंने कहा कि, ''नेपाल सरकार से समन्वय के लिए वे एक उच्च स्तरीय दल गठित करेंगे''। उन्होंने यह भी वादा किया कि तटबंध के मरम्मत, रखरखाव व सुरक्षा के लिए वे बिहार सरकार को आवश्यक तकनीकी सहायता भी उपलब्ध करएंगे। इस तरह की आश्वासन वाली बातें तो पिछले 60 सालों से की जा रहीं है। इससे पहले भारत सरकार ने नेपाल के जल संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत जल आधारित आपदा निवारण विभाग के निवेदन पर 7 जुलाई 2008 को नदियों के तटबंध के मरम्मत व विकास के लिए अनुदान दिया था।

इन सबसे साफ है कि जमीनी स्तर पर जो भी बदलाव आए, ज्यादातर बाते वैसे ही रहती हैं। तटबंध के मरम्मत का कार्य जारी है और तात्कालिक हल के तौर पर उसके मार्च 2009 तक पूरा हो जाने की उम्मीद है। ऐसे समय में उत्तारी बिहार और नेपाल में कोसी के बाढ़ क्षेत्र का दौरा करके लौटे तथ्यान्वेषण दल की मांग है कि इस पूरी आपदा पर और खासकर उत्तरी बिहार में कोसी घाटी के ड्रेनेज (जलनिकासी) पर एक श्वेत पत्र जारी किया जाय। ताकि मौजूदा नीतियों के कारण बंद हुई ड्रेनेज समस्या को हल किया जा सके। इससे समस्या और बाढ़ प्रवण क्षत्र में बढ़ोतरी करने वाली तथाकथित विपरीत हल की परिस्थतियों का पता लगना चाहिए।

इस रिपोर्ट का कहना है कि बांध, तटबंध और उनकी मरम्मत जैसे बाढ़ नियंत्रण के उपायों से सिर्फ तात्कालिक राहत मिल सकती है। ऐसी परिस्थिति में नदी के बहाव क्षेत्र में बदलाव के कारकों का सूक्ष्म स्तर पर दीर्घकालीक और सावधानीपूर्वक अध्ययन की जरूरत है। यहां यह स्पष्ट करने की जरूरत है कि तटबंध के कटाव को बंद कर दने से ही समस्या का स्थायी हल नहीं हो जाएगा। परिवर्तनकारी जलविज्ञान को नजरअंदाज करने पर बांध और तटबंध की उम्र 25 साल होती है और बदलावों को ध्यान दते हुए तकनीकी सुधार करते हुए 37 साल होती है।

कोसी तटबंध में अब तक का यह आठवां कटाव है, जिसमें नेपाल के चार पंचायत, उत्तरी बिहार के 4 जिले सहरसा, सुपौल, मधेपुरा और अररिया इस बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। इनके अलावा 12 अन्य जिले पुर्णिया, खगड़िया, मुजफ्फरपुर, पश्चिमी चंपारण, सारण, शेखपुरा, वैशाली, बेगुसराय, पटना, और नालंदा भी इस बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। एक अनुमान के अनुसार करीब 35 लाख लोग इस बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। बिहार सरकार के रिपोर्टों के अनुसार पिछले साल 22 जिलों में 48 लाख लोगों को बाढ़ के कारण सहायता की जरूरत थी। इससे साफ है कि घटना के पैमाने का अनुमान न कर पाने से इतनी बड़ी आपदा आई। बाढ़ के पानी का सबसे पहला कार्य यह होता है कि अतिरिक्त पानी की निकासी करे। लेकिन इंजिनियरिंग हस्तक्षेप के करण ऐसा नहीं हो पाया।

नदियां तो बसाती हैं. उजाड़ने का धंधा उन्होंने कब से शुरू कर दिया? अगर यह सवाल आप पूछते हैं तो आपको थोड़ा इतिहास, भूगोल समझना होगा. उससे भी ज्यादा बिहार की राजनीति और अर्थशास्त्र समझना होगा. फिर आपकी समझ में आ जाएगा कि बसानेवाली नदी उजाड़ने का धंधा कैसे शुरू कर देती है.

बाढ़ से उबरने के नाम पर आजादी के बाद अब तक 1600 करोड़ रूपया खर्च किया जा चुका है. यह पैसा पानी में बह गया हो ऐसा नहीं है. इस पैसे ने यहां बाढ़ को बढ़ाया है. ठेकेदारों की एक चाक-चौबंद जमात पैदा की है. उन ठेकेदारों की पीठ पर राजनीतिक दलों और योजनाकारों की एक भारी-भरकम फौज पलती है. जो साल दर साल बाढ़ को बिहार की नियति बनाने का पक्का इंतजाम करती जाती है.

इन योजनाओं की ही प्रभुता है कि 1950 के दशक में जहां 25 लाख हेक्टेयर जमीन पानी में डूबी रहती थी वहीं अब 68.8 लाख हेक्टेयर जमीन पर स्थाई रूप से पानी का डेरा है. कोई भी पूछेगा कि यह कैसी योजना हुई कि दवा करते गये और मर्ज बढ़ता गया. ब्रह्मदेव चौधरी बाढ़ से भले ही तबाह हों फिर भी वे कोसी को नहीं कोसते. हमारे एक साथी ने उनसे पूछा कि अगर प्रधानमंत्री राहत योजना के तहत आपको पैसा मिले तो क्या आप बाढ़ से निपटने के लिए तटबंध बनाएंगे? ब्रह्मदेव ने समझा हम सरकार के नुमाइंदे हैं इसलिए हमें ही संबोधित करते हुए उन्होंने कहा "जितना पैसा आप तटबंध बनाने के लिए देंगे उससे ज्यादा पैसा हम आपको देते हैं लेकिन यहां कोई तटबंध मत बनाईये."

बाढ़ से उबरने के लिए जिन तटबंधों को रास्ता समझा गया वही तटबंध अब बाढ़ और विस्थापन के कारण हो गये हैं.

तटबंध का यही वह रोग है जिसे इलाज समझ लिया गया है और हर साल सरकार इसे पवित्र कर्मकाण्ड मानकर पूरा करती है. बाढ़ से निपटने की सारी योजनाएं तटबंध बनाने के नाम पर आकर सिमट जाती हैं. जो कि बाढ़ को ही बढ़ाता है. अकेले कोसी में हर साल 5 लाख 50 हजार टन से ज्यादा गाद आती है. समय के साथ पानी तो बह जाता है लेकिन गाद पीछे छूट जाती है. यह गाद उन तटबंधों के कारण वहां स्थाई डेरा डाल देती है जिसे समाधान मानकर पेश किया गया था. अब साल दो साल में वह तटबंध ही बेकार हो जाता है इसलिए हमको फिर एक नया तटबंध बनाने की जरूरत पड़ती है. और इस तरह यह एक चक्र बन जाता है.

अकेले उत्तर बिहार में 8.36 लाख हेक्टेयर जमीन सालभर पानी में डूबी है. यह कुल इलाके का 16 प्रतिशत बैठता है. लगभग 80 लाख लोग बाढ़ के सीधे प्रभाव में हैं. जाहिर सी बात है प्रभावित लोग या तो गरीब हैं या प्रभाव के कारण गरीब हो जाते हैं. ऐसे गरीब लोगों के लिए सरकार के पास कोई योजना हो ही नहीं सकती. अगर कोई योजना बने तो सबसे पहले तटबंधों पर पुनर्विचार हो. गरीबों के पास एक ही रास्ता बचता है कि वे जमीन छोड़ दें. और वे यही करते हैं. यहां से दूसरी राजनीति शुरू हो जाती है और प्राकृतिक आपदा और राजनीतिक मूर्खता के शिकार ये लोग अपने ही देश में दोयम दर्जे के नागरिक बना दिये जाते हैं. अब वापस वहां लौट नहीं सकते, शहर उन्हें अपमानित करता है. आप ही बताईये ऐसे विस्थापित लोग कहां जाएं?

अब तक न ऐसा कोई तटबंध बना है और न भविष्य में बनेगा जिसमें कटाव न आए। कोसी नदी के तटबंध में कटाव और पिछले नेपाली और भारत सरकार द्वारा बड़े बांध का प्रस्ताव के तर्क में इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि कोसी को बांधा नहीं जा सकता।

अपने विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों और जटिल जलविज्ञान के विशेषताओं के कारण कोसी एक ऐसी नदी है जिसके बारे में अभी व्यापक रूप से समझा जाना बाकी है। यह सही समय है कि नीति निर्माता ''प्रकृति पर नियंत्रण'' करने के अपनी पुरानी अवधारणा का त्याग करें और यह माने कि हमें बाढ़ के साथ जीना सीखना होगा।